रोग/रोग प्रबन्धन

रोग/रोग प्रबन्धन

गन्ने में लगने वाले रोग तथा एकीकृत रोग प्रबन्धन

गन्ना वानस्पतिक प्रवर्धन द्वारा उगाई जाने वाली लम्बी अवधि की फसल है जो वर्ष भर या उससे भी अधिक समय तक खेत में खड़ी रहती है। इस दौरान फसल जमाव, ब्यॉंत तथा विस्तार आदि अवस्थाओं से गुजर कर परिपक्वता की स्थिति में पहुँचती है। इन अवस्थाओं से गुजरते समय फसल अगोले से लेकर जड़ तक अनेक प्रकार की ब्याधियों द्वारा प्रभावित होती है। सामान्यत: गन्ने की फसल में रोगों द्वारा गन्ने की उपज में 18 से 31 प्रतिशत तक की हानि देखी गयी है परन्तु रोगों की महामारी की दशा में सम्पूर्ण फसल नष्ट हो सकती है। रोगों द्वारा की गयी हानि से कृषक एवं मिल मालिक दोनों ही प्रभावित होते हैं।

प्रमुख रोग(Major diseases)

1.लाल सड़न (Red Rot)

लाल सड़न गन्ने का सबसे भयंकर रोग है जिसे गन्ने का कैंसर भी कहते है। यह रोग कोलेटोट्राइकम फलकेटम नामक फफूंद द्वारा होता है। इस रोग के लक्षण जुलाई–अगस्त माह से दिखाई देना प्रारम्भ होते हैं तथा फसल के अन्त तक दिखाई देते हैं। ग्रसित गन्ने की अगोले की तीसरी से चौथी पत्तियॉं एक किनारे अथवा दोनों किनारों से सूखना प्रारम्भ हो जाती हैं तथा धीरे–धीरे पूरा अगोला सूख जाता है। गन्ने को लम्बवत् फाड़ने पर इसके तने का गूदा लाल रंग का दिखाई देता है जिसमें सफेद धब्बे दिखाई पड़ते हैं।फटे हुये भाग में सिरके जैसी गन्ध आती है तथा गन्ने आसानी से बीच से टुट जाते हैं कभी–कभी गन्ने की पत्ती की मध्य शिरा पर लाल रंग के धब्बे पाये जाते हैं। बाद में ये धब्बे पूरी मध्यशिरा को घेर लेते हैं। कभी–कभी भूरे लाल रंग के धब्बे गन्ने की पत्ती पर पाये जाते हैं।

हानियॉं

1. इस रोग के कारण जमाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कम जमाव से उपज में ह्रास होता है।
2. अगोला सूख जाने के कारण कृषक को चारे के लिए अगोला उपलब्ध नहीं हो पाता है।
3 गन्ने में इस रोग के लग जाने पर वैज्ञानिकों को वह प्रजाति सामान्य खेती से हटानी पड़ती है। साथ ही नयी काना रोगरोधी जाति विकसित करनी पड़ती है।
4. गन्ने में चीनी बनते समय गॉंठों में ब्याधिजन होने के कारण इन्वर्टेज नामक इन्जाइम पैदा होता है जिससे सुक्रोज, ग्लूकोज तथा फ्रक्टोज में टूट जाता है। ये दोनों शर्करायें क्रिस्टल के रूप में जम नहीं पाती हैं। अत: इससे शीरे की मात्रा बढ़ती है तथा चीनी का परता घटता है।
5. महामारी के समय पूरे के पूरे खेत रोग के कारण सूख जाते हैं जिससे कृषक को उपज नहीं मिल पाती है। इसके अतिरिक्त फसल में रोग का आपतन होने पर उपज में ह्रास होता है जोकि 44 प्रतिशत तक हो सकता है।

2.कंडुआ रोग (Smut)

यह बीज जनित रोग है जो स्पोरिसोरियम सीटेमिनियम नामक फफूंदी से होता है। रोगी पौधों की पत्तियॉं छोटी, पतली, नुकीली हो जाती हैं तथा गन्ना लम्बा एवं पतला हो जाता है। बाद में गन्ने की गोंफ में से एक काला कोड़ा निकलता है जो कि सफेद पतली झिल्ली द्वारा ढका होता है। यह झिल्ली हवा के झोंकों द्वारा फट जाती है, फलस्वरूप रोग के बीजाणु बिखर जाते हैं तथा आसपास के पौधों में द्वितीयक संक्रमण पैदा करते हैं।यह रोग मुख्यत: तमिलनाडु, महाराष्ट्र तथा केरल राज्यों में अधिक पाया जाता है। उ0प्र0 में यह रोग वर्ष भर देखने को मिलता है परन्तु अप्रैल, मई, जून तथा अक्टूबर, नवम्बर एवं फरवरी माह में इस रोग की तीव्रता अधिक पायी जाती है। प्रजाति को0 1158 इस रोग से पूरी तरह ग्रस्त हैं। पेड़ी में यह रोग बावग की तुलना में अधिक पाया जाता है।

हानियाँ

1. इस रोग के कारण उपज में 30 से 70 प्रतिशत तक ह्रास देखा गया है।
2. प्रभावित गन्नों के रस से खराब गुणवत्ता का गुड़ बनता है।
3. रोगी गन्ने से रस का ब्रिक्स, सुक्रोज तथा प्योरिटी बुरी तरह प्रभावित होती है।
4. स्वस्थ गन्ने की तुलना में 10 प्रतिशत रस की कमी तथा 7 प्रतिशत तक सुक्रोज में कमी पाई गई है।

3.उकठा रोग (Wilt)

यह भी गन्ना बीज तथा मृदा जनित रोग है जोकि भारत वर्ष के लगभग सभी राज्यों में पाया जाता है। इस रोग का प्रसार बीज एवं मृदा से होता है। यह रोग गन्ने के लाल सड़न रोग, पाइन ऐपिल रोग तथा बोरर्स एवं स्केल इन्सेक्ट के साथ संयुक्त रूप से भी पाया जाता है। इस रोग के कारण अतीत में गन्ने की बहुत सी जातियॉं जैसे– को0 527, 951, 1007, 1223, को0शा0 445, 321 आदि सामान्य खेती से हटाई गयी हैं। यह रोग फ्यूजेरियम मोनिलीफोर्मी, सिफेलोस्पीरियम सेकराई अथवा एक्रीमोनियम स्पीसीज द्वारा होता है। उकठा रोग के लक्षण मानसून के बाद देखने को मिलते हैं। इसमें या तो एक पौधा अथवा पौधों के छोटे झुण्डों में अगोले में पीलापन प्रारम्भ होने लगता है। प्राय: पत्ती की मध्य शिरा पीली पड़ जाती है और पत्ती का अन्य भाग हरा रहता है। गन्ने धीरे–धीरे हल्के एवं अन्दर से खोखले हो जाते हैं। गन्नों को लम्बवत् फाड़ने पर गूदे का रंग हल्का बैंगनी अथवा गहरे लाल रंग का दिखाई देता है। गन्ने में सिरके अथवा एल्कोहल जैसी गन्ध नहीं आती है तथा गन्ना गॉंठों पर से आसानी से नहीं टूटता है। प्रभावित गन्ने की पोरियां पिचक जाती है । ऐसे गन्नों के अन्दर फफूंदी के असंख्य बीजाणु भरे होते हैं। यह रोग प्राय: उन क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है जहॉं फसल में कीटों का आपतन अधिक होता है तथा कृषक उचित फसल चक्र नहीं अपनाते साथ ही जल निकास का उचित प्रबन्ध भी नहीं करते हैं।

हानियॉं

1. इस रोग में गन्ना सूखने के कारण उपज पर काफी प्रभाव पड़ता है।
2. इस रोग के कारण जमाव प्रभावित होता है जिसके फलस्वरूप फसल में गैप अधिक हो जाता है।
3. उकठा रोग के आपतन के कारण 65 प्रतिशत तक उपज में ह्रास अंकित किया गया है।
4. इस रोग के कारण रस में 14.6 से 25.8 प्रतिशत तक तथा रिकवरी में 3 से 29 प्रतिशत तक की कमी पाई गई है।

हानियॉं

इस रोग को विवर्ण रोग, ग्रासीशूट या एल्बिनो भी कहते हैं। बुवाई के कुछ दिनों बाद से ही इस रोग के लक्षण परिलक्षित होने लगते हैं। परन्तु विशेष रूप से इस रोग का प्रभाव वर्षाकाल में होता है। रोगी पौधों के अगोले की पत्तियों में हरापन बिल्कुल समाप्त हो जाता है जिससे पत्ती का रंग दूधिया हो जाता है और नीचे की पुरानी पत्तियों में मध्य शिरा के समानान्तर दूधिया रंग की धारियॉं पड़ जाती हैं। थानों की वृद्धि रुक जाती है। गन्ने बौने और पतले हो जाते हैं तथा ब्यॉंत बढ़ जाने से पूरा थान झाड़ी नुमा हो जाता है।

3.उकठा रोग (Wilt)

1. इस रोग के कारण पौधों का हरापन कभी–कभी बिल्कुल गायब हो जाता है जिसके फलस्वरूप किल्ले सूख जाते हैं तथा खेत गैपी हो जाता है।
2. इस रोग के कारण फसल में मिल योग्य गन्ने कम तथा पतले बनते हैं। इससे भी उपज में गिरावट आती है।
3. इस रोग से ग्रसित गन्नों में सुक्रोज कम होता है साथ ही रिड्यूसिंग शुगर बढ़ जाती है जिससे सुक्रोज के क्रिस्टल नहीं बनते हैं।

5.पर्णदाह(Leaf scald)

लीफ स्काल्ड को पतसूखा रोग भी कहते हैं। यह एक शाकाणुजनित रोग है जोजेन्थोमोनास एलबिलिन नामक बैक्टीरिया द्वारा होता है । प्रारम्भ में रोगी गन्ने की पत्तियों तथा पत्र कंचुक पर हल्के सफेद रंग की धारियॉं बन जाती हैं। पत्तियों की बढ़वार के साथ हल्की सफेद धारियॉं चौड़ी होकर गुलाबी रंग की हो जाती हैं। पत्तियॉं विशेषकर अगोले से कुछ कड़ी व अन्दर की ओर मुड़ी होती हैं जिनके सिरे झुलसे हुये प्रतीत होते हैं। रोगी गन्ने की सभी आंखों का जमाव होकर किल्ले निकल आते हैं। रोगी गन्ना चीरने पर अन्दर गूदे में लाल रंग की बारीक धारियॉं होती हैं जो पोरी में कहीं–कहीं दिखाई देती हैं।

हानियॉं

1. रोगी गन्ने की लम्बाई स्वस्थ गन्ने की तुलना में कम हो जाती है।
2. रोगी गन्नों की ब्रिक्स तथा प्योरिटी में कमी आती है तथा साथ ही उनकी शुगर रिकवरी प्रतिशत में कमी आती है।

गौण रोग (Minor disease)

1.पत्ती का लालधारी रोग (Red stripe)

यह शाकाणुजनित रोग है जो स्यूडोमोनास रुब्रीलिएन्स नामक बैक्टीरिया से होता है । इसका आपतन गन्ने की फसल पर जून से वर्षा ऋतु के अन्त तक रहता है। प्रारम्भिक अवस्था में पत्ती के डण्ठल के पास हरे रंग की जलीय धारियॉं उत्पन्न हो जाती हैं जो कुछ दिनों बाद सुर्ख लाल होकर लम्बाई में फैल जाती हैं व नसों के सामानान्तर होती हैं। ये धारियॉं कुछ से0मी0 से लेकर पत्ती की पूरी लम्बाई तक हो सकती हैं जो बाद में परस्पर मिलकर चौड़ी हो जाती हैं। ये धारियॉ अधिकतर नई पत्तियों पर ही निचली सतह पर पायी जाती हैं। इन धारियों पर पत्तियों के निचले भाग वाले रंग में रोग के असंख्य शाकाणु रहते हैं जिनके स्पर्श से स्वस्थ गन्ने की पत्तियॉं भी रोगी हो जाती हैं।

2.गूदे का सड़न रोग (Stinking Rot)

यह एक शाकाणुजनित रोग है जो स्यूडोमोनास डेसियाना तथा जुलाई से अक्टूबर तक दिखाई देता है। वर्षाकाल में नमी व तापक्रम अधिक होने से रोग का प्रकोप बढ़ता है। वर्षाकाल समाप्त होने पर नमी कम हो जाती है। साथ ही तापक्रम गिर जाता है जिससे इस रोग का प्रभाव भी कम हो जाता है। प्रभावित गन्नों में गूदे की सड़न ऊपर से नीचे की ओर आरम्भ होती है। रोग शुरू होने पर अगोले के बीच की पत्तियॉं सूखने लगती हैं तथा बाद में पूरा अगोला ही सूख जाता है। रोग के शाकाणु पौधे के शिखर कलिका तक पहुंच कर वहॉं के तन्तुओं पर आक्रमण कर देते हैं जिससे वृद्धि स्थान सड़ने लगता है एवं पौधे की वृद्धि रुक जाती है तथा पौधों का भीतरी भाग ऊपर से नीचे की ओर सड़ता चला जाता है। गूदे के सड़ाव से बदबूदार गंध आती है। ऐसे रोगी पौधों को ऊपर से दबाने पर तरल पदार्थ (चिपचिपा) सा प्रतीत होता है। अगोला साधारणतया हल्के झटके से टूट जाता है। सड़ा हुआ गूदा जो कि पनीला एवं हल्के भूरे रंग का होता है, निकलकर बहने लगता है, जिसमें रोग के असंख्य शाकाणु रहते हैं जो वर्षा होने पर फैलकर संक्रमण करते हैं। पत्ती की लालधारी व गूदे की सड़न रोग से उपज में 15 प्रतिशत तक हानि पाई जाती है। प्राय: थान का गन्ना सूखकर नष्ट हो जाता है तथा अधिक आपतन की दशा में थान के सभी कल्ले नष्ट हो जाते हैं। जब पत्ती की लालधारी के साथ गूदे की सड़न प्राररम्भ हो जाती है तो फसल को काफी हानि देखी गई है।

3.पेड़ी का कुंठन रोग (Ratoon Stunting Disease)

यह रोग भी शाकाणुजनित रोग है जोकि बीज गन्ना द्वारा फैलता है तथा लीफसानिया जाइली द्वारा फैलता है। यह रोग भारत में सर्वप्रथम 1956 में, को0शा0 510 प्रजाति में, गोला गोकर्णनाथ, जनपद–लखीमपुर खीरी में देखा गया था। इस रोग के लक्षण प्राय: पूर्णतया स्पष्ट नहीं हो पाते हैं। ऐसे बीज का प्रयोग करने से फसल भी रोगी हो जाती है। यह रोग बावग एवं पेड़ी दोनों की प्रकार की फसल में देखा गया है परन्तु पेड़ी फसल में ही अधिक पाया जाता है। इस रोग से प्रभावित पौधे पतले एवं छोटे हो जाते हैं तथा कभी–कभी थान के पूरे गन्नों की संख्या भी कम होने लगती है। छोटी उम्र के गन्ने चीरने पर गॉंठों का रंग हल्का गुलाबी दिखाई देता है। उन्नतशील जातियों का ह्रास हो जाता है। बावग की अपेक्षा पेड़ी में अधिक हानि होती है। जमाव कम होकर बढ़वार में काफी कमी आ जाती है। फलत: उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

4.मौजेक रोग (Mosaic)

यह एक विषाणुजनित रोग है जो बीज एवं एफिड सैकेराई व कुछ अन्य कीटों द्वारा पत्ती से रस चूसने से फैलता है। यह मुख्य रूप से पत्ती का रोग है। इस रोग के लक्षण मुख्यत: पत्ती पर आते हैं परन्तु कभी–कभी लीफ शीथ पर भी इसके लक्षण दिखाई देते हैं। पत्तियों पर सफेद रंग की छोटी–छोटी बहुत सी धारियॉं पड़ जाती हैं जो धब्बे बनाती हैं जिससे पत्तियॉं चितकबरी हो जाती हैं। ये धारियॉं नसों के समानान्तर बढ़ती हैं जो हरे रंग में धुंधली सी प्रतीत होती हैं। यह बीमारी पौधे की नई पत्तियों से शुरू होती है। पुरानी पत्तियों में इसके लक्षण स्पष्ट दिखाई नहीं देते हैं। रोग की अधिक व्यापकता पर अगोला पीला होकर सूखने लगता है व फसल सूखती हुई नजर आती है जिससे पैदावार कम हो जाती है और रसोगुण भी खराब हो जाता है।

पोक्का बोइंग (Pokkah Boeng)

यह एक फफूंदी जनित रोग है जो फ्यूजेरियम मोनलिफ़र्मी द्वारा फैलता है। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में अगोेले की पत्तियों पर सफेद धब्बे पड़ते है जहाँ से पट्टी सड़ कर नीचे गिर जाती है। संक्रमण की तीव्रता अधिक होने पर अगोेले की साड़ी पत्तियां ,मुड़कर,सुखकर गिर जाती है । गन्ने का ऊपरी भाग ठूंठ की भांति दिखाई देता है ।पत्तियों के सड़कर नीचे गिर जाने से पौधों की बढ़बार प्रभावित होती है । पोक्का बोइंग की रोकथाम हेतु कॉपर ऑक्सी क्लोराइड के 0.2 % विलयन का 15 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव लाभप्रद है|

पाइन एपिल रोग (Pineapple disease)

यह एक फफूंदी जनित रोग है जोसिरेटोसिस्टस पैरोडोक्सा द्वारा फैलता है। इस रोग का नाम पाइन एपिल रोग इसलिये रखा गया क्योंकि ग्रसित पैड़ों से अनानास के फल जैसी महक आती है। यह महक गन्ने के पैड़ों में ब्याधिजन द्वारा मेटाबोलिक क्रियाओं के दौरान इथाइल ऐसीटेट बनने के कारण आती है। इस रोग के लक्षण गन्ने की बुवाई करने के दो–तीन सप्ताह बाद देखने को मिलते हैं। ब्याधिजन पैड़ों के कटे हुये भागों से प्रवेश कर जाता है तथा प्रभावित ऊतकों में पहले लाल रंग उत्पन्न करता है जोकि बाद की अवस्थाओं में भूरे लाल रंग में परिवर्तित हो जाता है। ब्याधिजन के कारण पैड़ों की गॉंठों पर जड़ें नहीं बन पाती हैं। इस रोग के कारण पैड़े सड़ जाते हैं जिसके कारण जमाव नहीं हो पाता है।

पत्ती का लाल धब्बा रोग (Red Leaf Spot)

यह फफूंदी जनित रोग जो स्टेकीबोट्रीज बीसपी द्वारा होता है वर्षाकाल में प्रारम्भ होता है। प्रारम्भ में पत्तियों पर लाल रंग के बिन्दु की तरह धब्बे बनते हैं जिनके किनारे पीलापन लिये हुये होते हैं। बाद में ये धब्बे नील लौहित रंग (परप्लिश रैड) के हो जाते हैं। धब्बे गोल या अण्डाकार होते हैं जोकि दो या दो से अधिक धब्बे आपस में मिल जाने पर अनियमित आकार के हो जाते हैं। प्राय: ये धब्बे 0.5–2.0 मि0मी0 व्यास तक के होते हैं। धब्बे के केन्द्र का रंग राख की तरह नही रहता है जोकि इस रोग को रिंग स्पॉट रोग से भिन्न करता है। धब्बों की सघनता हो जाने पर पत्तियों का क्लोरोफिल नामक पदार्थ नष्ट होने लगता है जिससे भोजन बनाने की प्रक्रिया बाधित होती है। फलत: पौधे की बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

पत्ती का भूरा धब्बा रोग (Brown leaf spot)

यह एक फफूंदी जनित रोग है।जो सर्कोस्पोरा लान्जीपस नामक फफूंद द्वारा होता है।इस रोग का आपतन मध्य जून व जुलाई से प्रारम्भ होता है। गन्ने में ऊपर से 5–6 पत्तियों को छोड़कर नीचे की पत्तियों की सतह पर जगह–जगह जल की बूदों जैसे श्वेत धब्बे दिखाई देते हैं जो बाद में हल्के पीले रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। बाद की अवस्था में धब्बों को सावधानीपूर्वक देखें तो जगह–जगह पर डाट जैसा गाढ़ा कत्थई रंग दिखाई देता है। रोग के आपतन से पत्तियों में क्लोरोफिल नष्ट हो जाता है जिसके फलस्वरूप भोजन बनाने की प्रक्रिया इन ऊतकों में समाप्त हो जाती है। रोग के प्रभाव से गन्ने की बढ़वार बरसात में रुक जाती है।

आई स्पॉट डिसीज (Eye spot)

यह फफूंदीजनित रोग है जो बाइपोलेरिस सेकेराई द्वारा होता है तथा पत्तियों पर फफूंदी से उत्पन्न होने वाले धब्बों के रोगों में यह प्रमुख है। वर्षाकाल में यह रोग प्रारम्भ होता है। प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे–छोटे जलीय धब्बे बनते हैं जोकि बाद में लम्बाई में बढ़कर आंख के समान बड़े हो जाते हैं। इन धब्बों के बीच का भाग लाल व किनारे भूसे के रंग के हो जाते हैं। कुछ ही दिनों के पश्चात् धब्बों के सिरे से पतली, लम्बी व लाल रंग की धारी जिन्हें रनर्स कहते हैं, निकलती हैं जो पत्ती के ऊपरी भाग की ओर कई से0मी0 तक लम्बी लकीर जैसी हो जाती है। अनुकूल वातावरण होने पर ये धारियॉं (रनर्स) पत्ती की पूरी लम्बाई तक फैल जाती हैं। रोग का आपतन जलभराव वाले क्षेत्रों में अधिक होता है।

बैंडेड स्कलोरेशियल रोग (Banded sclerotial disease)

यह फफूंदीजनित रोग है। जो राइजेक्टोनिया सोलेनाई द्वारा होता है। यह प्राय: वर्षा के प्रारम्भ में होता है। इस रोग में प्राय: पौधे की, पुरानी जमीन की सतह के पास की पत्तियॉं प्रभावित होती हैं। आक्रान्त पत्तियों व लीफ शीथ पर बहुत बड़े अनियमित आकार के हल्का पीलापन लिये हुये भूसे के रंग के धब्बे बनते हैं जिनके किनारे लाल बादामी रंग के होते हैं। पत्तियों पर एक क्रम में आरपार बैण्ड पाये जाने के कारण इस रोग को बैंडिड स्कलोरेशियल नाम दिया जाता है। यह रोग प्राय: अधिक गर्म व उच्च आर्द्रता वाले महीनों (अगस्त–सितम्बर) में पाया जाता है। बाद की अवस्था में प्रभावित पत्तियॉं सूख जाती हैं। यह रोग नीचे की पुरानी पत्तियों तक सीमित रहता है। इसलिये ज्यादा हानि नहीं होती है।

गन्ने का रतुआ रोग (Rust of sugarcane)

यह फफूंदीजनित रोग पत्तियों पर आता है। जो पक्सीनिया कुहनी द्वारा होता है। उ0प्र0 में इसका संक्रमण वर्षा बाद अक्टूबर–नवम्बर के महीनों में पाया जाता है। पत्तियों की दोनों सतहों पर इस रोग के पिस्सच्यूल्स बनते हैं। पहले नयी पत्तियों पर सूक्ष्म लम्बाई के पीले धब्बे आते हैं जोकि प्राय: 2 से 10 मि0मी0 लम्बाई के एवं 1–3 मि0मी0 चौड़ाई के होते हैं। बाद की अवस्था में इन पिस्सच्यूल्स का रंग बादामी हो जाता है। रोग के बढ़ने पर थान के सभी गन्नों के अगोले प्रभावित हो जाते हैं। रोग की प्रचण्डता होने पर पिस्सच्यूल् लीफ शीथ पर भी आते हैं तथा पूरा अगोला दूर से भूरे रंग का दिखाई देता है। उच्च आर्द्रता (70 से 90 प्रतिशत) होने पर रोग का तेजी से प्रसार होता है। घने बादल एवं तेज हवायें रोग के बीजाणु फैलाने में सहायक होती हैं। रोग की प्रचण्डता होने पर अगोला प्रभावित होता है जिससे उपज प्रभावित होती है।

उ0प्र0 में पाये जाने वाले रोगों का समय तथा उनके स्थानों का विवरण

क्र0 सं0 रोग का नाम रोग के क्रियाशील होने का समय विवरण
1. लाल सड़न जुलाई से अन्त तक सम्पूर्ण उ0प्र0
2. कण्डुवा रोग अप्रैल–जून,अक्टूबर,नवम्बर, फरवरी सम्पूर्ण उ0प्र0
3. उकठा रोग अक्टूबर से अन्त तक सम्पूर्ण उ0प्र0
4. घासीय प्ररोह रोग अप्रैल से अन्त तक सम्पूर्ण उ0प्र0
5. लीफ स्काल्ड रोग जुलाई से अन्त तक पूर्वी तथा मध्य उ0प्र0
6. रैटून स्टंटिंग नवम्बर से अन्त तक सम्पूर्ण उ0प्र0
7. टॉपरॉट/पोक्का बोइंग जून से सितम्बर तक मध्य एवं पश्चिमी उ0प्र0
8. स्टिकिंग रॉट जून से सितम्बर तक पूर्वी उ0प्र0
9. रेड स्ट्राइप जून से सितम्बर तक पूर्वी तथा मध्य उ0प्र0
10. व्हाइट लीफ डिसीज जुलाई से अन्त तक पूर्वी उ0प्र0
11. यलो लीफ सिण्ड्रोम जून से अन्त तक पूर्वी तथा मध्य उ0प्र0
12. रेड लीफ स्पॉट जुलाई से अन्त तक पश्चिमी उ0प्र0
13. भूरा धब्बा रोग जुलाई से अन्त तक पश्चिमी उ0प्र0
14. बैंडिड स्केलोरेशियल जुलाई से अन्त तक मध्य उ0प्र0
15. मोजैक जून से अन्त तक पूर्वी उ0प्र0
16. रतुआ अक्टूबर से अन्त तक पश्चिमी तथा मध्य उ0प्र0

एकीकृत रोग प्रबन्धन हेतु निम्न का अनुपालन आवश्यक है।
रोगरोधी जातियों का प्रयोग

गन्ने के प्रमुख रोगों हेतु रोगरोधी जातियॉं शाहजहॉंपुर, सेवरही, गोरखपुर, मुजफ्फरनगर तथा गोलागोकर्णनाथ शोध केन्द्रों द्वारा लगातार निकाली जाती रहती हैं। इन संस्थानों द्वारा त्रिस्तरीय बीज उत्पादन कार्यक्रम के अन्तर्गत रोगरोधी जातियों का बीज गन्ना पैदा किया जाता है। साथ ही गन्ने की अस्वीकृत तथा रोगी प्रजातियों को हटाने के लिये बीज बदलाव कार्यक्रम चलाया जाता है। अत: स्वीकृत प्रजातियों का बीज गन्ना क्षेत्रीय एवं जलवायु अनुकूलता के अनुरूप प्रयोग करना चाहिये।

शुद्ध बीज का चुनाव

गन्ना बोने हेतु हमेशा रोग रहित खेत से ही बीज लेना चाहिये। इस प्रकार का बीज गन्ना शोध संस्थान द्वारा प्रमाणित पौधशालाओं से मिल जायेगा तथा बीज बोने हेतु गन्ने के टुकड़ों की कटाई करते समय यदि कोई टुकड़ा रोग ग्रसित दिखाई देता है तो उसे निकाल देना चाहिये।

ताप शोधन

बीज गन्ने में गर्म जल शोधन का बहुत महत्व है। 50 डिग्री से0ग्रे0 पर दो घण्टे तक बीज शोधन करने पर कण्डुआ, घासीय प्ररोह एवं रैटून स्टेन्टिंग आदि रोगों से छुटकारा मिल जाता है। साथ ही बीज में नवीन शक्ति (विगर) आ जाती है। गर्मजल शोधन करते समय तापक्रम का विशेष ध्यान रखना चाहिये। यदि ताप अधिक अथवा निर्धारित समय से अधिक हो जाता है तो गन्ने का जमाव प्रभावित होता है।

बीज काटने वाले औजारों का विसंक्रमण

बीज की कटाई करते समय काटने वाले औजारों का विसंक्रमण आवश्यक है। औजारों का विसंक्रमण आग में गर्म करना अथवा फार्मल्डिहाइड या लाइसोल के 5 प्रतिशत घोल में बार–बार डुबोते रहना चाहिये।

बीज शोधक का प्रयोग

कार्बेन्डाजिम के 0.1 प्रतिशत घोल में पैड़े को डुबोकर बोना चाहिये। ये रसायन पैड़ों के चारों तरफ एक परत बना देते हैं जिससे ब्याधिजन मर जाते हैं। साथ ही इससे जमाव भी बढ़ जाता है।

रोग उन्मूलन

बीज पौधशालाओं अथवा सामान्य गन्ने के खेतों की देखरेख करते रहना चाहिये। यदि कोई रोगी गन्ने का पौधा दिखाई देता है तो पूरा मूढ़ जड़ सहित निकाल कर खेत के बाहर जला देना चाहिये। पौधे जलाने से रोग पैदा करने वाले ब्याधिजन नष्ट हो जाते हैं।

पेड़ी का बहिष्कार

जिस खेत की बावग में एक भी लालसड़न रोग से ग्रसित गन्ना हो अथवा किन्हीं अन्य रोगों का आपतन प्रचुर मात्रा में हो, उसकी पेड़ी किसी भी दशा में नहीं रखनी चाहिये।

फसल चक्र का अपनाना

रोगयुक्त फसल के खेत में सफाई के उपरान्त एक वर्ष तक गन्ना न बोयें। इस बीच सुविधानुसार अन्य फसलें ले सकते हैं। इस हेतु धान तथा गेहूं का फसल चक्र अच्छा रहता है।

जल निकास का उचित प्रबन्ध

गन्ने के खेत में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिये। यदि रोगी खेत का जल स्वस्थ गन्ने के खेत में आता है तो रोग पैदा होने की काफी सम्भावनायें होती हैं। अत: रोगी खेत का जल स्वस्थ खेत में आने से रोकना चाहिये।

गन्ने के विभिन्न रोगों के रासायनिक तथा जैविक उपचार

अ. उकठा तथा पाइन एपिल रोग हेतु उ0प्र0 गन्ना शोध परिषद्, शाहजहॉंपुर द्वारा विकसित बायोएजेन्ट ’’अंकुश’’ (ट्राइकोडर्मा स्पीसीज) को 10 कि0ग्रा0 प्रति हेक्टेयर की दर से 100–200 कि0ग्रा0 कम्पोस्ट खाद के साथ मिलाकर 20–25 प्रतिशत तक नम करके खेत की तैयारी के समय अन्तिम जुताई के पूर्व खेत में बिखेर देनी चाहिये अथवा बुवाई के समय कूंड़ों में पैडों के ऊपर डालना चाहिए।
ब. उकठा रोग हेतु बुवाई के समय सल्फर 50 कि0ग्रा0/है0 की दर से खेत में डालने के साथ–साथ जिंक 0.5 प्रतिशत का पर्णीय छिड़काव करने से रोग पर प्रभावी नियंत्रण पाया जा सकता है।
स. पोक्का बोइंग तथा आई स्पॉट रोग हेतु इसके लक्षण प्रकट होते ही कॉपर आक्सीक्लोराइड के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिये।
द. पत्ती का भूरा धब्बा रोग हेतु मैन्कोजेब नामक दवा का 0.25 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिये।
र. रतुआ रोग हेतु मैक्कोजेब या डाइथेन M-45 का 0.2 प्रतिशत घोल के 2 से 3 छिड़काव नवम्बर से फरवरी तक करना चाहिये।
ल. कण्डुआ रोग के प्राथमिक संक्रमण को कम करनेहेतु गन्ने के पैड़ों को बोने से पूर्व कार्बेन्डाजिम (बेबिस्टीन) के 0.2 प्रतिशत घोल में 5 मिनट के लिये डुबोना चाहिये।